

नई दिल्ली: शिवसेना (एनडीए) के राष्ट्रीय समन्वयक और एनडीए गठबंधन के चुनाव प्रभारी डॉ. अभिषेक वर्मा ने 25 जून 1975 को तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा लागू किए गए आपातकाल को भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे काला अध्याय करार दिया। उन्होंने इस अवसर पर आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर उस दौर की त्रासदी को याद करते हुए कहा कि यह वह समय था जब लोकतंत्र को बंधक बनाकर आजाद भारत के नागरिकों को सरकार की तानाशाही का शिकार होना पड़ा।
डॉ. वर्मा ने कहा, “25 जून 1975 की रात, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा की। यह फैसला न केवल संवैधानिक मूल्यों पर आघात था, बल्कि नागरिकों की स्वतंत्रता, प्रेस की आजादी और न्यायपालिका की निष्पक्षता को कुचलने का प्रयास था। इस दौरान लोगों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए, प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी गई, और लाखों लोगों को बिना मुकदमे के जेल में डाल दिया गया।”
उन्होंने उस दौर की विभीषिका को याद करते हुए कहा, “आपातकाल के दौरान सरकार ने आम लोगों की जिंदगी को नियंत्रित करने की कोशिश की। यह तय किया जाने लगा कि लोग कितने बच्चे पैदा करेंगे, क्या बोलेंगे, क्या देखेंगे। यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि एक संवैधानिक तानाशाही थी। विपक्षी नेताओं जैसे जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, और लालकृष्ण आडवाणी को जेल में डालकर असहमति की हर आवाज को दबा दिया गया।”
डॉ. वर्मा ने जोर देकर कहा कि आपातकाल का यह काला अध्याय भारत की जनता कभी नहीं भूलेगी। उन्होंने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा, “इंदिरा गांधी और कांग्रेस ने सत्ता के लालच में संविधान की आत्मा को कुचलने की कोशिश की। लेकिन भारत की जागरूक जनता ने 1977 के चुनाव में जनता पार्टी को सत्ता सौंपकर लोकतंत्र की रक्षा की। यह एक मिसाल है कि जब-जब सत्ता निरंकुश होगी, जनता उसका जवाब देगी।”
उन्होंने युवा पीढ़ी से अपील की कि वे आपातकाल के इस काले दौर को समझें और लोकतंत्र की रक्षा के लिए सतर्क रहें। डॉ. वर्मा ने कहा, “आज का दिन हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र केवल चुनावों से नहीं चलता। इसके लिए स्वतंत्र संस्थाएं, प्रेस की आजादी, और जागरूक नागरिक जरूरी हैं। भारत की जनता कभी भी कांग्रेस के इस अलोकतांत्रिक कृत्य को माफ नहीं करेगी।”
पृष्ठभूमि और तथ्य
आपातकाल की घोषणा 25 जून 1975 को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी की सलाह पर की थी। यह फैसला 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस निर्णय के बाद आया, जिसमें इंदिरा गांधी का रायबरेली से 1971 का लोकसभा चुनाव अवैध घोषित किया गया था। इस फैसले ने राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया, और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विपक्ष ने “संपूर्ण क्रांति” का आह्वान किया।
आपातकाल के 21 महीनों (25 जून 1975 से 21 मार्च 1977) के दौरान नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया, प्रेस पर सख्त सेंसरशिप लागू हुई, और हजारों विपक्षी नेताओं व कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। इस दौरान सरकार ने विवादास्पद 20-सूत्री कार्यक्रम और जबरन नसबंदी जैसे कदम उठाए, जिनका व्यापक विरोध हुआ।
1977 में आपातकाल हटने के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी ने कांग्रेस को हराकर केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई। इस चुनाव में इंदिरा गांधी स्वयं रायबरेली से हार गईं, और मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने।
डॉ. अभिषेक वर्मा ने अपने बयान में इस बात पर जोर दिया कि आपातकाल का यह दौर हमें लोकतंत्र की नाजुकता और उसकी रक्षा की जिम्मेदारी को समझाता है। उन्होंने कहा, “हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसा काला अध्याय दोबारा न आए। लोकतंत्र की रक्षा हम सबकी साझा जिम्मेदारी है।”